ऐसा क्यों होता हैं की जब भी दिल दुखी होता हैं की घर याद आता हैं. घर …वहा जहा बड़े हुए, की वहा जहा घर बसाया, या जहा आज रह रहे हैं. घर की परिभाषा क्या हैं. यह देश जो परदेश लगता है या वोह जो अपना हैं पर आजकल दूर हैं.. यह दुविधा उन्ही की हैं जो कोसो दूर हैं या उनकी भी हैं जो साथ रह कर भी स्नेह से वंचित हैं.
कहने को एक ही घर होता हैं पर कुटुंब मैं रहने वालो के लिए हर परिजन का स्नेह ही एक घर हैं, सच ही हैं न इतने नातो से घिरे हम हर नाते मैं एक घर को साथ लेकर चलते हैं. इसीलिए हर उस क्षण मैं मन नहीं लगता जब भी कही कोई आहात होता हैं.
पिछले कुछ सालो मैं कई त्रासदियों ने दबे पाँव प्रवेश किया हैं, स्पर्श किया हैं, उनको, जिन्हें दुखी देख मन भर आता हैं. और घर बहुत याद आता हैं. वहां जाना भी चाहते हैं, पर विडम्बना भी यही हैं की उस की चौखट पार करने के लिए कई बरस का मन मैं साहस भी होना चाहिए. घर जो मेरा अपना हैं, इक घर जहाँ के रहने वालो के लिए मैं अब भी छोटी हूँ, वही जहाँ हर आने वाले के लिए सवेरे की सांझ चूल्हा जलता था, आज ठंडा पड़ा हैं क्योंकि घर के लोगो की ख़ुशी समय की मार मर गयी हैं.
अन सब के लिए दुखी हूँ, पर फिर दुसरे ही पल अपनी गृहस्थी को जीती हूँ, सुखी हो जाती हूँ, तृप्त हो जाती हूँ, भूल जाती हूँ, क्षण भर के लिए जीवन की टेडी चाल को, जैसे सागर किनारे रेत पर पड़े पदचिन्ह पानी मिटा देता हैं. और फिर असमंजस मैं पड़ जाती हूँ की किस घर को जियूं किस को नहीं. भागो मैं बंट जाती हैं जीवन की हर कड़ी हर उस प्रियजन के नाम जिनको भी मेरे जीवन की लहर ने छुआ हैं जिनको भी मैंने अपने संग जिया हैं.
I guess, its our identity and our memories are kept in our home. Every corner speaks for those vivid moments we spend there. Great post…
Reblogged this on Footprints of Past and Future.
सुंदर आलेख.. यह शायद उन सारे दिलों की सांझी दुविधा है जो जो घर से दूर घर बसाये हुये हैं…आपकी यह पंक्तिया बहुत सुंदर हैं
” सब के लिए दुखी हूँ, पर फिर दुसरे ही पल अपनी गृहस्थी को जीती हूँ, सुखी हो जाती हूँ, तृप्त हो जाती हूँ, भूल जाती हूँ, क्षण भर के लिए जीवन की टेडी चाल को”
दुःख के बीच सुख और सुख के बीच दुःख परछाईं सा सदा ही रहता है … इसी लिए तो जीवन को धूप छाँव सा कहा जाता है….
So true….
Manju and Rachna,
Thank you for such beautiful thoughts and appreciation