आज सुबह भी मन भीगा था
आज सुबह् भी झोली खाली थी
पर कही किसी के लिए
फिर निकला सूरज
फिर दो दिल मिले
किसी ने किसी के दिल को छुआ
और दो प्यार के बोल कहे
दिन ढला, दिन चला, गुजर गया
सांझ की चौखट पर
खड़ी हूँ अकेली, अनछुई, अनसुनी
लिए नम आँखे
ना किसी ने देखा मुझे
ना दो शब्द कहे
ना प्यार से हाथ रखा
ना कोई अहसास दिए
कल तक गुमान था
रिश्तों पर, था ऐय्त्बार
की हमकदम हम ,
हैं तुम्हारे सनम हम
सोचती हूँ
क्या हुआ, कहा गए
क्यों हम साथ चलते भी
तनहा रह गए
पर आज ताकती हूँ
सूनी चौखट को
कब वोह आये
कुछ कहे, प्यार से छुए
बैठी हूँ इन्तेज़ार मैं
उस छूअन, उस अहसास का,
उस बोल का
जो पूरा कर जाये मुझे
जो भीगा के दामन
बरखा दे जाये मुझे
फिर जी उठू मैं, झूम उठू मैं
बहुत अच्छी कवितायें हैं। आप तो देवनागरी में लिख लेती हैं उसी में क्यों नहीं लिखतीं। रोमन में पढ़ने पर मुश्किल होती है।
उन्मुक्त जी, धनयवाद, आप के सुझाव पर अम्ल कर रही हूँ