उन बच्चों के नाम जो दाने दाने के लिए तरसते हैं……..जब मैं खुद बचपने मैं रहती थी…..
सूना सा आँगन , सुखी सी धरती
यह बंजर मरुभूमि, काहे न सरसती
वो ठंडा चूल्हा , वो बेरौनक सी चिमनी
न सुलगती लकड़ी, न धधकती अग्नि
क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं
भूखे हैं अनगिनत मुंह , हाथ भी खाली हैं
क्यों ये जर्जर शरीर , क्यों हैं मौत भी पराई
परछाई सी दिखती , पर हाथ न आयी
कंकाल सी जिन्दा लाशे हैं, पर लोगो के लिए तमाशे हैं
क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं
भूखे हैं अनगिनत मुंह , हाथ भी खाली हैं
हाथ फैलाए वो फटेहाल खड़े हैं
सावन मैं भी , पीले पतों से झडे हैं
दया के पात्र , वो लाचारी मैं पाले हैं
भूखे वो बच्चे, ठणडे चूल्हे से जले हैं
क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं
भूखे हैं अनगिनत मुंह , हाथ भी खाली हैं
जी कविता बहुत सुंदर बन पड़ी हैं , पर आपके सवाल का कोई साधारण उत्तर नहीं !
गरीबी,अनाथ और मौसम की मार हमेशा से ही रही है ! दोषी वो हैं जो ऐसी गरीबी में भी बच्चो को जन्म देते हैं और भूमि का भार बढ़ाते हैं ! फिर भी परिश्रम से सब कुछ संभव हैं ! हजारो सालों से चली आ रही समाज सेवा कभी भी ख़त्म नहीं होगी , अनाथ अभी और भी होंगे ! हैरानी की बात तो ये है की, मनुष्य पेड़ो से उतर कर जमीन पर चलना और आसमान में उड़ना सीख गया पर कुछ लोग अभी भूके हैं ! वे किसी की मदद से कभी नहीं उबर सकते ! किसी आकस्मिक विपदा के बाद किये गए सेवा कार्यों और समाज सेवा में अंतर है ! राहत कार्यो से आप किसी को बुरे वक्त में सहारा दे सकते हैं पर हमेशा समाज सेवा करते रहे ऐसा संभव नहीं ! वैसे निरंतर समाज सेवा के प्रयास किये नहीं जा सकते ऐसा नहीं है ये राजा (सरकार) को देखना होगा और इसके मूल का विनाश करना होगा !
रश्मि जी नमस्ते!
बहुत ही साधारण और सरल सवाल है …पर इसका उत्तर कुछ असाधारण ही होगा जैसा की भूपेंद्र ने कहा ..
हमारे समाज में बहुत असमानता है….कही अतिरेक है तो कहीं साँसे भी पूरी नहीं मिलती …
इन्ही भावो ने शायद कभी बुद्ध, यीशु और गाँधी के मन को परिवर्तित किया होगा …..
भूपेंद्रजी एवं प्रदीपजी
बिलकुल सही कहा आप दोनों ने जितना साधारण सा यह प्रश्न लगता हैं उतना नहीं है, और शायद कई सवाल और कधे कर देता हैं, पर चाहे हमारे पास जवाब न हो पर मन व्यथित जरूर हो जाता हैं, हम सब आम दिनचर्या मैं लिप्त हैं, खुश हैं, पर दर्द कभी न कभी महसूस जरूर करते हैं
very good poem.
you may publish in KAVITAKOSH.