उठता हैं बवंडर शब्दों का
पर चुप हैं कलम
और खामोश है जुबान
सन्नाटा सा छाया हैं
जब सदियाँ हैं करने को ब्यान
ढूँढ रही हूँ, भटक रही हूँ
चलता हैं एक अंतर्द्वंद
कहने को, है इतना कुछ
पर छाई हैं, एक गहरी धुंध
उतावले बैठे हैं इतने क्षण
कुछ शब्दों मैं गढ़ जाने को,
एक मूरत सी बनती हैं
कुछ पन्नों मैं छप जाने को
ऐसा नहीं की,
मन का कोष हैं खाली
हैं बहुत से सपने, ढेर सी हकीकत
इतनी खुशियाँ जो मैंने पाली
अंतर्मन मैं, उठती हैं लहरें
बाँट सकूँ सब संग,
हर पल जो मैंने पाया
हर अश्रु जो पलकों पर आया
बनते बिगड़ते रिश्तों की
दिन रात उलझते धागों की
मौन पलों और कहते अधरों की
दास्ताँ हैं बयाँ करनी मुझे
मौसम के आते जाते हर रंगों की
माना एक प्रश्नचिन्ह है मेरे आगे
पर क्या यह होता हैं सबके संग
क्या हैं कोई एक भी मेरे जैसा
जो चाह कर भी न बाँट सके
अपने अंदर का कोई रंग
आज चुप हैं कलम
और खामोश है जुबान
सन्नाटा सा छाया हैं
जब सदियाँ हैं करने को ब्यान
silence haunts me
noise disturbs me
unrelentingly
i go on searching peace
the search never ends
i neither get peace
nor solace
my agony keeps
increasing
Beautiful Nirantarji and Thanks Soma
well expressed the emotions of restless heart 🙂
Beautiful thoughts presented beautifully…..
very nice & different poem….
Shabdon ka bawandar, khamoshi ki kalam aur utavle kshan ….wah kya Khoobsurat sanyojan hai,bhavon ka, shabdon ka…..
Sundar rachna ke liye badhai !
कभी कभी मन में तूफान होता है और बाहर सन्नाटा …. अच्छी प्रस्तुति
Thank you so much for appreciating
Reblogged this on पदचिंह….Footprints of Past and Future.
bahut achha lagaa jaise kuchh apne hi andar ka padh rahi hun
dhanyawaad Bhavana…