रोजमरा की जिंदगी मैं हम सदैव उसको देखते हैं जिसको दुख मिला, पर कई बार ऐसा भी होता हैं, जिसने दुख दिया, उसको भी दुःख होता हैं, और हम उसकी पीड़ा को अनदेखा कर जाते हैं.
उस आँख से टपका वोह अश्रु
जाने कितनी आंह मैं डूबा
पर दुःख क्या केवल उस तक सीमित था
क्या न था कही, कोई और भी गर्त मैं डूबा
क्या वोह पावनता, वोह माधुर्य, सिर्फ एक का था?
वेदना का सागर मात्र एक को छूता था?
जिसको आह लगी, जो बुरा बना
उसके मनोभावो से हर कोई अछूता था
दूसरा प्रताड़ित हुआ, तो यह भी
पराकाष्ठाओं का बंदी बना था
मानवीय रिश्ता ही हैं, लेना और देना
सागर किसी को व्यथित कर जाता
तो खुद भी कितनी व्यथा समेटे था
यूँ जो व्यथित हुआ, वोह तो अश्रु टपका
आंह भर, फिर आशा के महलों मैं सोया
पर दूसरा तो सिर्फ लांछित हो पाया
मौन सिसकियाँ उसकी कौन सुन पाया
माना उसने पीड़ा दी
पर वोह भी व्यथित हुआ
महल नहीं, उसने तो
आशा का अतिरंजित खंडहर ही पाया
आहत कर, खुद भी आहत हो
वोह न खुश हो पाया, न रो पाया
कैसी विडम्बना हैं दीये की
दुसरे को जलाता, पर
खुद भी जलकर ही रौशनी दे पाया