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दीपावली

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शुभ हो, मंगलमय हो

दीपावली का, यह त्यौहार

न रहे अमावास, मिटे अँधेरा,

फैले उजियारा चंहु और

 

सजे घर आँगन,

करे श्रृंगार हर कोना

हो गृहप्रवेश, खुशियों का

दमके गली कूचा हो जैसे सोना

 

खील खिलोने और बताशे

दे जाये मिठास रिश्तों को

भूले बिसरे भी पास आ जाये

दे नयी उम्र अपनों को

 

इस दीपावली

हो जाए हर अधूरा सपना पूरा

भर जाए आँचल,

माँ लक्ष्मी की रहे अनुकम्पा


कोशिश

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हाथ पकड़ कर, मनुहार वोह करने लगे

किस बात पर नाराज़ हो, किस बात पर तुम यूँ उफकने लगे

 

हम ने नज़र फिरा, थोडा सा ठिठक कर कहा

हम क्यों तुमसे रूठने लगे ,

हमारी बिसात ही क्या, जो हम ऐसे बहकने लगे

सब अछा हैं, सब ठीक हैं, आखो के आंसू  छुपाने लगे

 

पर फिर बड़े प्यार से हाथ फिरा

उन्होंने हमे थप्काया,  और पूछने लगे,

जानम बता दो हमरी खता क्या हैं

किस बात तुम बेहाल होने लगे

 

बस फिर क्या था,  सारे बाँध तोड़

आखों के मोती,  टपकने लगे

सारे शिकवे जुबां से, लरजने लगे

दिल के टुकड़े हमारे, क्योंकर हुए

सरे किस्से बया होने लगे

 

लगा था सुन उनका आगोश

और भी मजबूत हो जाएगा

अपने रुमाल से हमारी

आखो  की नमी वोह उठाने  लगंगे

 

पर न हुआ यह

वोह जो सुनना चाहते थे, हम क्यों हैं परेशान

अचानक भडकने लगे, हमारी शिकायतों से उफनने लगे

हमारे  हाले दिल, उन्हें तरकश के तीर से चुभने लगे

 

हाय रे यह इंसान का अहं

एक पल मैं आंसूं भी, पत्थर लगने लगे

वोह थपकते हाथ यूँ ही रुक गए,

हम फिर तनहाइयों मैं भटकने लगे

 

शिकवा न करे तो भी अकेले,

और करे तो भी अकेले

क्या करे क्या न करे,

वोही समझने की, कोशिश करने लगे

मूक सवाली

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उन बच्चों के नाम जो दाने दाने के लिए तरसते हैं……..जब मैं खुद बचपने मैं रहती थी…..

 

सूना सा आँगन , सुखी सी धरती

यह बंजर मरुभूमि, काहे न सरसती

वो ठंडा चूल्हा , वो बेरौनक सी चिमनी

न सुलगती लकड़ी, न धधकती अग्नि

क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं

भूखे  हैं अनगिनत  मुंह , हाथ भी खाली हैं

 

क्यों ये जर्जर शरीर , क्यों हैं मौत भी पराई

परछाई सी दिखती , पर हाथ न आयी

कंकाल सी जिन्दा लाशे हैं, पर लोगो के लिए तमाशे हैं

क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं

भूखे  हैं अनगिनत  मुंह , हाथ भी खाली हैं

 

हाथ फैलाए वो फटेहाल खड़े हैं

सावन मैं भी , पीले पतों से झडे हैं

दया के पात्र , वो लाचारी मैं पाले हैं

भूखे वो बच्चे, ठणडे चूल्हे से जले हैं

क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं

भूखे  हैं अनगिनत  मुंह , हाथ भी खाली हैं

 

 

लम्हा

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लम्हा लम्हा रेत हुआ जाता हैं

कतरा है वोह वक्त का

खतम हुआ जाता हैं

तेरे आने की हसरत लिए बैठे हैं

 

सिहर उठता हैं मेरा रोम रोम

तेरे आगोश की तपिश लिए बैठे हैं

छुअन का अहसास हैं ऐसा

जर्रा जर्रा राख हुआ जाता हैं

लम्हा लम्हा रेत हुआ जाता हैं

साँसों की कशिश हैं ऐसी

पिघल जाऊँगी तेरे पास आकर

हाय यह दिल बेहोश हुआ जाता हैं

 

तेरे बोलो मैं मिलेंगे जो बोल मेरे

सोचकर ही संगीत बना जाता हैं

आ जाओ तोड़ कर सरे बंधन

लम्हा लम्हा रेत हुआ जाता हैं

एक पुरानी कविता नव वर्ष के नाम

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चंहु और उजाला, चंहु और ख़ुशी

मुस्कानों की फुलवारी चंहु और खिली

कही उदासी, कही कोई दुखी

कही कोई अकेला कही कोई सुखी

 

ऐसे ही धुप छाँव मैं,

बीत गया यह वर्ष

गर्म सर्द की चादर ओड़े

गुजर गया यह वक़्त

 

करे प्रार्थना सुखमय हो,

पावन हो नव वर्ष

हर जन की झोली मैं आये दिवाली,

चंहु और फैले यश एवं हर्ष

 

कह पाए एक सुर हो

चंहु और उजाला, चंहु और ख़ुशी

मुस्कानों की फुलवारी चंहु और खिली

इक नज़र

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इक नज़र प्यार की

इक नज़र इकरार की

इक नज़र में जी गयी

मैं ना जाने कितने जनम

इक नज़र तेरे साथ की

मैं हो गयी तेरी सनम…..

 

इक नज़र उस चाँद की

इक नज़र उस खवाब की

आके मेरे दामन में

जो कर गए पूरा मुझे

दे गए हज़ार नैमते

दिल के यह दो टुकड़े मेरे….

 

इक नज़र ने दे दिए ना जाने कितने ही पल

एक नज़र के वास्ते चल दिए कितने कदम

इक नज़र में जी गए जाने कितने जनम

एक नज़र प्यार की…….