जिंदगी इतनी मुश्किल क्यों हैं
आँखों मैं इतनी नमी क्यों हैं
बाँध तोड़ के बहते हैं दरिये
इतनी आसानी से सब्र टूटते क्यों हैं
जिंदगी रंगी क्यों हैं आँसुओं के रंग में
दामन गीला और मन भारी क्यों हैं
सरे रंग छोड़ के खड़ी हैं कलम मेरी
फिर कहे की पन्ने यूं कोरे क्यों हैं
जिंदगी के आईने मैं चटख दरारे क्यों हैं
किरचे सीने मैं नासूर सी चुभती क्यों हैं
दीखते हैं कई चेहरे एक आईने मैं
कोई भी अपना चेहरा, ना क्यों हैं
जिंदगी इतनी हैरान, इतनी अजब क्यों हैं
हर पल विडम्बना मैं फँसी क्यों हैं
सपने किसी के, पलके किसी की, दस्तक किसी की
पूंछे जरा की, फलते और कही , क्यों हैं
जिंदगी की चौखट गीली मिट्टी सी नरम क्यों हैं
भरभरा के धराशाई होती क्यों हैं
जैसे ही रखते हैं कदम, अपना समझ कर
वो आशियाना किसी और का होता क्यों हैं
साँझ की गोधूलि पर खड़ी हैं जिंदगी
ना रात अपनी, न दिन साथ मैं हैं
दोनों हाथों से टटोलते अपनी उम्मीदे
ये उम्मीदों की घड़ियाँ इतनी बेवफा क्यों हैं
जिंदगी ऐसी क्यों हैं, बेरौनक , सुनसान
टूटते हैं सपने, पर जज्बात जिन्दा क्यों हैं
हँसते हैं हम, पर भॅवर मैं गिरते क्यों है
अपने सच और औरों के झूट का फरक सीख जाए
ऐसी बेमानी तमन्ना हम करते क्यों हैं
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