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भॅवर

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IMG_0875जिंदगी इतनी मुश्किल क्यों हैं

आँखों मैं इतनी नमी क्यों हैं

बाँध  तोड़ के बहते हैं दरिये

इतनी आसानी से सब्र टूटते  क्यों हैं

 

जिंदगी रंगी क्यों हैं आँसुओं के रंग में

दामन गीला और मन भारी क्यों हैं

सरे रंग छोड़ के खड़ी हैं कलम मेरी

फिर कहे की पन्ने  यूं  कोरे क्यों हैं

 

जिंदगी के आईने मैं चटख दरारे क्यों हैं

किरचे सीने मैं नासूर सी चुभती क्यों हैं

दीखते हैं कई चेहरे एक आईने मैं

कोई भी अपना चेहरा,  ना क्यों हैं

 

जिंदगी इतनी हैरान, इतनी अजब क्यों हैं

हर पल विडम्बना  मैं फँसी क्यों हैं

सपने किसी के, पलके किसी की, दस्तक किसी की

पूंछे जरा  की, फलते  और कही , क्यों हैं

 

जिंदगी की चौखट गीली मिट्टी सी नरम क्यों हैं

भरभरा के धराशाई होती क्यों हैं

जैसे ही रखते हैं कदम, अपना समझ कर

वो आशियाना किसी और का होता क्यों हैं

 

साँझ  की गोधूलि पर खड़ी  हैं जिंदगी

ना रात अपनी, न दिन साथ मैं हैं

दोनों हाथों से टटोलते अपनी उम्मीदे

ये  उम्मीदों  की घड़ियाँ इतनी बेवफा क्यों हैं 

 

जिंदगी ऐसी क्यों हैं, बेरौनक , सुनसान

टूटते  हैं सपने, पर  जज्बात जिन्दा क्यों हैं

हँसते हैं हम, पर  भॅवर मैं गिरते क्यों है

अपने सच और औरों के झूट का फरक सीख जाए

ऐसी  बेमानी  तमन्ना हम करते क्यों हैं

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

गोधुली

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img_01511.jpgसांझ की चौखट पर बैठे

बीते दशको को  आज मैं जीते

इन्तजार करते उस गोधुली का

जब आये  उनके प्रियजन

हौंसला ले उनके हाथ पकड़ने का

वोह धुंदली आँखें, वोह काँपते हाथ

मुड़ मुड कर देंखे, रह रह के चाहे

कोई आ कर थामे उनके भी हाथ

जिन हाथो ने वोह  नन्ही  ऊँगली थामी

जिन बाहों ने अपनेपन की चादर डाली

जो पाँव चले आगे आगे, भागे पगडण्डी पर

राह दिखाई, मरहम लागाई, वोही चले अकेले,

बिना सहारे, बूढ़े हाथो मैं लाठी थामे

 

जीवन की संध्या पर

एक ही आशा, एक ही साँस

साथ हो अपने दिल के टुकड़े

प्यार से बोले,सुने समझे  मन के  हाल

उनके ही अंश, उनके ही वंश

बस पास हो उनके, हो प्रत्यक्ष

 

छोड़ गए हैं दिल के टुकड़े,

आज जो जीते अपनी सुबह को

थोडा सा अपने हिस्से का सूरज

क्यों न देते अपने ही अपनों को

अपने होंठो की स्मित मुस्कान

क्यों न फैलाते, उन  सूनी आँखों मैं

 

लो आज पकड लो अपने अपनों का हाथ

दे दो साथ, थोड़ी सी प्रिय, स्नेह की बौछार

उनको, जो सांझ की चौखट पर बैठे

बीते दशको को  आज मैं जीते

इन्तजार करते उस गोधुली का

जब आयेंगे उनके अपने प्रियजन

मूक सवाली

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उन बच्चों के नाम जो दाने दाने के लिए तरसते हैं……..जब मैं खुद बचपने मैं रहती थी…..

 

सूना सा आँगन , सुखी सी धरती

यह बंजर मरुभूमि, काहे न सरसती

वो ठंडा चूल्हा , वो बेरौनक सी चिमनी

न सुलगती लकड़ी, न धधकती अग्नि

क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं

भूखे  हैं अनगिनत  मुंह , हाथ भी खाली हैं

 

क्यों ये जर्जर शरीर , क्यों हैं मौत भी पराई

परछाई सी दिखती , पर हाथ न आयी

कंकाल सी जिन्दा लाशे हैं, पर लोगो के लिए तमाशे हैं

क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं

भूखे  हैं अनगिनत  मुंह , हाथ भी खाली हैं

 

हाथ फैलाए वो फटेहाल खड़े हैं

सावन मैं भी , पीले पतों से झडे हैं

दया के पात्र , वो लाचारी मैं पाले हैं

भूखे वो बच्चे, ठणडे चूल्हे से जले हैं

क्यों हैं यह सब ??, शायद हम सभी मूक सवाली हैं

भूखे  हैं अनगिनत  मुंह , हाथ भी खाली हैं