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सन्नाटा

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उठता हैं बवंडर शब्दों का

पर चुप हैं कलम

और खामोश है जुबान

सन्नाटा सा छाया हैं

जब सदियाँ हैं करने को ब्यान

 

ढूँढ रही हूँ, भटक रही हूँ

चलता हैं एक अंतर्द्वंद

कहने को, है इतना कुछ

पर छाई हैं, एक  गहरी धुंध

 

उतावले बैठे हैं इतने क्षण

कुछ शब्दों मैं गढ़ जाने को,

एक मूरत सी बनती हैं

कुछ पन्नों मैं छप जाने को

 

ऐसा नहीं की,

मन का कोष हैं खाली

हैं बहुत से सपने, ढेर सी हकीकत

इतनी खुशियाँ  जो मैंने पाली

 

अंतर्मन मैं, उठती हैं लहरें

बाँट सकूँ सब संग,

हर पल जो मैंने पाया

हर अश्रु जो पलकों पर आया

 

बनते बिगड़ते रिश्तों की

दिन रात  उलझते धागों की

मौन पलों और  कहते अधरों की

दास्ताँ हैं बयाँ करनी मुझे

मौसम के आते जाते  हर रंगों की

 

माना एक प्रश्नचिन्ह है मेरे आगे

पर क्या यह होता हैं सबके संग

क्या हैं कोई एक भी मेरे जैसा

जो चाह कर भी न बाँट सके

अपने अंदर का कोई रंग

 

आज  चुप हैं कलम

और खामोश है जुबान

सन्नाटा सा छाया हैं

जब सदियाँ हैं करने को ब्यान

उम्मीद

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हर सुबह, जब आँख खुलती हैं

टूट जाते हैं कई सपने

रह जाते हैं कई ख्वाब अधूरे

जिंदगी सजा सी लगती हैं

 

आधे ख्वाब, या आधी हकीकत

या फिर आधा फ़साना

हर इंसान को टूटे सपने की किरचे

जागते हुए नासूर सी लगती हैं

 

पर जुड जाते हैं कई और लम्हे

नए दिन की शुरुआत से

रंग भर जाते हैं कई नए सपने

हर नयी रात के आगाज़ मैं

 

हर दिन नए पल, नए रिश्ते

नए अहसास और नए सपने

ना मानो अधूरे ख्वाबो को सजा, ऐ दोस्त

हर नए सपने को नयी उम्र लगती हैं

 

यक़ीनन जिंदगी हैं ऐसा मल्हम

हर उम्मीद को नयी उम्मीद लगती हैं